Pages

Wednesday, May 19, 2010

जिन्दगी लिखने लगी है - देवेन्द्र आर्य

जिन्दगी लिखने लगी है दर्द से अपनी कहानी
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

आज बचपन बैठकर
मुझसे शिकायत कर रहा है
किन अभावों के लिए मन
छाँव तक पहुँचा नही था,
क्यूँ मुझे बहका दिया
कुछ रेत के देकर घरौँदे
मंजिलोँ के जुस्तजू को
आज तक बाँचा नही था

क्या कहूँ मैं किस तरह किस हाल में ढलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

अनसुनी कर दो भले
पर आज अपनी बात कह दूँ
एक अम्रित बूँद लाने
मैं सितारों तक गया हूँ
मुद्यतोँ से इस जगत की
प्यास का मुझको पता है
एक गंगा के लिए
सौ बार मै शिव तक गया हूँ

मैं सभी के भोर के हित दीप सा जलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

मानता हूँ आज मेरे
पाँव कुछ थक से गये हैं
और मीलों दूर भी
इस पंथ पर कब
तक चलूँगा
पर अभी तो आग बाकी है
अलावोँ को जलाओ
मैं स्रिजन के द्वार पर
नव भाव की वँशी बनूँगा

तुम चलो मैं हर खुशी के साथ मिल चलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

0 comments: